Muharram 2022: मुहर्रम का इतिहास, इसे क्यों मनाते हैं | History Of Muharram |

मुहर्रम यह इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है जो इस्लाम को मानने वाले सुन्ने और शिया दोनों ही समुदायों के लिए बेहद खास माना जाता है। इस साल 31 जुलाई से शुरू हुआ मुहर्रम 9 अगस्त कों खत्म हों रहा है इसे मुहर्रम के दसवें दिन या इस मुहर्रम महीने की दसवीं तारीख पर मातम के तौर पर मनाया जाता है। इस दिन कोई यौमे आशूरा के नाम से जाना जाता है। इस्लाम को मानने वालों के लिए यह एक ऐसा दिन होता है जो उनके लिए खास तो है लेकिन उतना ही गमगीन भी है। इस्लामिक आस्थाओं के मुताबिक मोहर्रम के महीने में हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। हजरत इमाम हुसैन इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब के नवासे थे। हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मुहर्रम के महीने के 10 दिन को लोग मातम के तौर पर मनाते हैं जिसे आशूरा कहा जाता है। आशूरा मातम का दसवां दिन होता है इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग मातम करते हैं।

कौन था यजीद, जिसकी सेना सें इमाम हुसैन ने लिया था लोहा ?

आपको बता दें कि इस्लामिक कैलेंडर के 1 साल में 354 दिन होते हैं मुहर्रम के महीने को अल्लाह के रसूल हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहो वाले वसल्लम ने अल्लाह का महीना बताया है। अल्लाह के नबी ने कहा कि ये रमजान के रोजे के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के महीने के ही हैं। इस महीने अशोक का महीना इसलिए कहते हैं क्योंकि इराक में स्थित कर्बला में हजरत मोहम्मद हुसैन ने अपने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी कि कर्बला के मैदान में करीब 14 साल पहले एक भीषण जंग हुई थी। जो इंसाफ के लिए जुल्मों सितम के खिलाफ लड़ी गई थी इसी वजह से उनको इंसाफ की जंग के नाम से भी जाना जाता है। इस युद्ध यजीद जोकि मुआविया नाम के शासक का शाही वारिस था। वह मुआविया के गुजरने के बाद गद्दी नशीन हुआ था यजीद वह शासक था जिसमें हर तरह की हरकतें थी। वह चाहता था कि उसके गद्दी नशीन होने का ऐलान खुद इमाम हुसैन साहब करें क्योंकि इमाम हुसैन मोहम्मद साहब के नवासे थे जिनका लोगों के बीच बहुत आदर सम्मान था और वे लोगों के बीच अच्छा प्रभाव भी रखते हैं। लेकिन यजीद की ओर से ऐसी पेशकश हजरत मोहम्मद साहब के घराने ने इस्लामिक शासन मानने से इनकार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी।

इमाम हुसैन के साथ सभी 72 लोगों ने दी थी शहादत

यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने फैसला किया कि वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहा अमन कायम रहे। इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़ कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे लेकिन कर्बला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया यजीद ने उनके सामने शर्ते रखी जिन्हे हुसैन साहब ने मानने से साफ इंकार कर दिया। शर्त नहीं मानने की एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी यजीद से बात करने के दौरान इमाम हुसैन के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तंबू लगाकर ठहर गए। यजीदी की फौज नें इमाम हुसैन के तंबूवो को फरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी। लेकिन इमाम हुसैन साहब जंग नहीं चाहते थे क्योंकि इससे सिर्फ विनाश ही होगा उनके काफिले में भी 72 ही लोग थे जिनमें उनकी पत्नी बेटियां बहन और 6 महीने के एक बेटे चले कुछ और छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल थे। यह वह वक्त था जब भीषण गर्मी पड़ रही थी इन दिनों में इराक में दिन का तापमान 47 से 50 डिग्री तक पहुंच जाता था ऐसे में उनके पास पानी और खाना खत्म हो चुका था। इसके बावजूद इमाम हुसैन साहब की ओर से सभी ने यजीदी फौज से मुकाबला किया और शहीद हो गए उनकी कुर्बानी के इस दिन को मुहर्रम के तौर पर मनाया जाता है।

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